शनिवार, 18 दिसंबर 2010

लूट तंत्र की दूसरी पोस्ट - राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जारी .

इस देश का भाग्य कहा जाय या यह कहा जाये की इनको किसी का श्रोप लगा हुआ है की यह उबरेंगे ही नहीं, सहज और एक अनोखे महान नायक की तरह जो भी यहाँ का शासक बनता है उसके सोचे हुए कार्य ही देश की तकदीर बन जाते है उन्ही पर काम होता है न की देश की सारी वह संस्थाए जिन्हें देश को सुधारने आगे ले जाने के उदयेश से बनाया गया है, यद्यपि जो समय के साथ पंगु हो जाति है क्योंकि यह वही मशीनरी होती है जो भारत की आज़ादी के साथ 'अमरबेल' की तरह हर जगह फैली हुयी है जहाँ से कोई दूसरा न घूसने पाए यानि वही रहें उनकी बिरादरी कैसी भी हो हटने न पाए. 
आईये अब देखा जाय लूट का हिसाब किताब -
राष्ट्रमंडल खेल - लूट में शरीक लोगों की सूची-अप्रकाशित कमजोर लोगों की जाँच .
2G घोटाला - मंत्री बाहर - बाकी सब सामान्य - जाँच आयोग का गठन संसद ठप्प .  
इनके अलावा आर्थिक सुधारों के नाम पर पूरी लूट अलग अलग तरीके से की जा रही है यहाँ जो सबसे बड़ी लूट हो रही है उसका असर सामाजिक सुधारों के रोकने पर लगाया गया है, इसके लिए भारत के प्रधानमंत्री से मुफीद और कोई आदमी नहीं हो सकता इस लूट में पूरी छूट अलग अलग मुद्दों पर मिली हुयी है. शायद नीरज ने इसी किसी लूट या लुटने की बात कर रहे हैं.

स्वपन  झरे  फूल  से, मीत  चुभें  शूल  से
लुट  गए  श्रृंगार  सभी, बाग़ के बबूल से
और  हम  खड़े खड़े, बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे ||

मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ तुम शहज़ादी रूप नगर की
हो भी गया प्यार हम में तो बोलो मिलन कहाँ पर होगा ?
मीलों जहाँ न पता खुशी का
मैं उस आँगन का इकलौता,
तुम उस घर की कली जहाँ नित
होंठ करें गीतों का न्योता,
मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी
मिल भी गई राशि अपनी तो बोलो लगन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...
मेरा कुर्ता सिला दुखों ने बदनामी ने काज निकाले
तुम जो आँचल ओढ़े उसमें
नभ ने सब तारे जड़ डाले
मैं केवल पानी ही पानी तुम केवल मदिरा ही मदिरा
मिट भी गया भेद तन का तो मन का हवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...
मैं जन्मा इसलिए कि थोड़ी
उम्र आँसुओं की बढ़ जाए
तुम आई इस हेतु कि मेंहदी
रोज़ नए कंगन जड़वाए,
तुम उदयाचल, मैं अस्ताचल तुम सुखान्तकी, मैं दुखान्तकी
जुड़ भी गए अंक अपने तो रस-अवतरण कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...
इतना दानी नहीं समय जो
हर गमले में फूल खिला दे,
इतनी भावुक नहीं ज़िन्दगी
हर ख़त का उत्तर भिजवा दे,
मिलना अपना सरल नहीं है फिर भी यह सोचा करता हूँ
जब न आदमी प्यार करेगा जाने भुवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...
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तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
जग से निंदित और उपेक्षित,
होकर अपनों से भी पीड़ित,
जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!                                              
सांध्य गगन में करते मृदु रव
उड़ते जाते नीड़ों को खग,
हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
झंझा के झोंकों में पड़कर,
अटक गई थी नाव रेत पर,
जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!



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