आज प्रिंट और टेलीविजन, दोनों मीडिया भ्रष्टाचार के मामले में अति उत्साह दिखा रहे हैं। हालांकि मैं यह समझ नहीं पा रही कि क्यों लगभग हर टिप्पणीकार मनमोहन सिंह की ‘व्यक्तिगत ईमानदारी और निष्ठा’ के प्रति श्रद्धा जताने में जुट जाते हैं, खासकर तब जब वे उनके कैबिनेट सहयोगियों द्वारा किए गए घोटालों की चर्चा करते हैं। वह भी तब जब इसके स्पष्ट सुबूत हैं कि विभिन्न गैरकानूनी सौदों के बारे में प्रधानमंत्री को जानकारी थी। जैसे कि टेलीकॉम घोटाले में उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगी द्वारा पिछले छह वर्षों से जारी शर्मनाक आर्थिक अपराध को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया।
भ्रष्टाचार केवल व्यक्तिगत रूप से रिश्वत लेने और उसे विदेशों में गुप्त खातों में जमा करने, बेनामी संपत्ति खरीदने या अपनी पत्नी के लिए हीरे के गहने स्वीकार करना ही नहीं है। भ्रष्टाचार प्रच्छन्न अवतारों में आ सकता है, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालकर भी कुछ लोगों के व्यक्तिगत लाभ के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग से जान-बूझकर आंखें फेर लेना। उदाहरण के लिए, मुंबई के आतंकी हमलों में पुलिस को घटिया बुलेट प्रूफ जैकेट की आपूर्ति के लिए एक भी आदमी को सजा नहीं दी गई।
हाल के सप्ताहों में हमारे कुछ सम्मानित स्तंभकारों ने चेताया कि किसी को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाने के बजाय हमें सांगठनिक सुधार की बात करनी चाहिए। लेकिन जब ताकतवर लोग अपने कार्यालय की स्वायत्तता और संस्थान की विश्वसनीयता को सुनियोजित ढंग से नष्ट कर दें, तब आप लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास कैसे बचाए रख सकते हैं? अगर आप किसी के नियंत्रण में आकर उसके पक्षधर बन जाएंगे और देश की छवि और सुरक्षा की अनदेखी करके भारी समझौते के लिए तैयार हो जाएंगे, तो संस्थान को गुलाम बनते देर न लगेगी। डॉ. मनमोहन सिंह सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर संदिग्ध छवि वाले लोगों की नियुक्ति करने की अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। निर्वाचन आयोग और केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसी सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं में वैसी संदिग्ध छवि के लोगों को भरा गया, जिनकी विश्वसनीयता पर न केवल विपक्ष, बल्कि मीडिया और गणमान्य लोगों ने भी सवाल उठाए। प्रधानमंत्री ने उन लोगों को भी महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे, जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप साबित हो चुके हैं।
यह सरकार न्यायिक क्षेत्र के शीर्ष व्यक्तित्वों को बचाने के लिए स्थापित नियम-कायदों से बाहर चली गई है, जबकि उन माननीयों के अपराध अगर साबित हो जाएं, तो उन पर महाभियोग चलाया जा सकता है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति दिनकरण को स्थानीय न्यायिक बिरादरी के कोप एवं बहिष्कार से बचाने के लिए सिक्किम उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया, जबकि सिक्किम के लोगों ने भी उनका विरोध किया। उत्तर प्रदेश में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों के प्रोविडेंट फंड की राशि के लूट में हिस्सेदारी लेने वाले जजों को जांच के दायरे में नहीं लाया गया, केवल दंड देकर छोड़ दिया गया। उनमें से एक सुप्रीम कोर्ट में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सेवानिवृत हुआ। घोटाले के मुख्य आरोपी की, जिसने बाद में जजों की संलिप्तता के सुबूत उपलब्ध कराए, रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को अभियोजन से बचाया गया, जबकि संप्रग सरकार की पहली पारी में उनके खिलाफ लगे आरोप सुरेश कलमाडी की तुलना में कम गंभीर नहीं थे।
राष्ट्रमंडल खेल घोटाला केवल फरजी कंपनियों को बढ़े हुए बिलों पर भुगतान कर धन के गबन का ही नहीं है। यह सब ठेकेदार-राजनेताओं के माफिया से शुरू हुआ, जिसमें पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन कर यमुना खादर को मुख्य रीयल इस्टेट में बदलकर खेलगांव का नाम देकर आलीशान इमारत बनाने की अनुमति प्रदान की गई। यह काम हाई कोर्ट द्वारा यमुना खादर में निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध लगा देने के बावजूद हुआ। जरूरत थी कि हाई कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए कलमाडी से ज्यादा शक्तिशाली जन-दबाव सुप्रीम कोर्ट पर पड़ता और नाक के ठीक नीचे तमाम पर्यावरण नियमों का उल्लंघन होते देख पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश इसे अनदेखा न करते। जाहिर है, खादर की जमीन को रीयल इस्टेट में बदलने के लिए राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन तो एक बहाना था। खेलगांव बनाने के लिए कंपनी का चयन, इसके वास्तविक मालिकों के नाम, इसके ज्ञात और अज्ञात साझेदार और इससे लाभान्वित होने वाले ज्ञात-अज्ञात लोगों की सूची जब सामने आएगी, तो यह मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले से भी ज्यादा घातक साबित होगा।
इसी तरह राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील राज्य कश्मीर का उदाहरण लें। मनमोहन सिंह उमर-विरोधी आंदोलन को भारत-विरोधी आंदोलन में तबदील होने से रोक नहीं पाए, जबकि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी भी इस मामले में सख्ती के इच्छुक थे। जब पूरी घाटी उमर अब्दुल्ला के निरंकुश शासन के खिलाफ थी, तब मनमोहन सिंह उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। निजी तौर पर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता स्वीकारते हैं कि जब तक राहुल गांधी उमर के दोस्त हैं, तब तक मुख्यमंत्री को छुआ नहीं जा सकता। जबकि मनमोहन सिंह अच्छी तरह जानते हैं कि उमर के शासन ने पाक प्रेरित अलगाववादियों को कश्मीर में नए सिरे से पांव जमाने का मौका दिया है। प्रधानमंत्री पद पर होने की वजह से यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह व्यक्तिगत वफादारी और राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर काम करें। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं दिखता। --------------------
आज क्यों गांधी |
|
|
|
Story Update : Saturday, October 02, 2010 12:19 AM |
महात्मा गांधी इस युग के सर्वमहान कर्मयोगी माने जाते हैं। उनके लिए इससे बड़ा अपमान और क्या होगा कि उनकी जन्मतिथि दो अक्तूबर को सरकार ने राष्ट्रीय छुट्टी घोषित कर रखी है। यदि उस दिन कोई व्यक्ति अपना दफ्तर या दुकान खोलना भी चाहे, तो उसे सरकार द्वारा दंडित किया जा सकता है। बापू ने हमें सिखाया कि हर नागरिक का यह बुनियादी धर्म है कि अन्यायपूर्ण व गलत कानूनों की खुलेआम अवमानना करे। इसलिए 1978 में मानुषी के गठन के बाद से हम लोग हर वर्ष गांधी जयंती के दिन बापू को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने दफ्तर को खुला ही नहीं रखते, बल्कि उस दिन अन्य दिनों की तुलना में अधिक काम करते हैं। कानून उल्लंघन के एवज में मैं कोई भी सजा झेलने को तैयार हूं।
यदि सरकार को बापू के नाम पर कुछ नाटक, आडंबर रचाना ही है, तो कम से कम उसका प्रतीकात्मक संदेश तो उपयुक्त होना चाहिए। मसलन दो अक्तूबर के दिन 10 बजे के बजाय दफ्तर आठ बजे खुलें और सब अफसर व कर्मचारी मिलकर मौन व्रत रखकर दफ्तर की साफ-सफाई करें।
कम से कम इस एक दिन तो अपने दफ्तरों की मेज, फाइलें, कमरे की खिड़कियां, आलमारियां, बरामदे व शौचालय इत्यादि ढंग से साफ किए जाएं और अफसरशाही को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि यदि उनके अपने दफ्तर इतने गंदे, मटमैले, बदबूदार व अस्त-व्यस्त रहेंगे, तो देश का प्रशासन संभालने की तहजीब उनमें कहां से आ पाएगी? जो व्यक्ति इतने गंदे व शर्मनाक माहौल में बैठकर दिन-प्रतिदिन काम करते हैं, उनका आत्मसम्मान कुचला जाना निश्चित है। इतिहास गवाह है कि आत्मसम्मान रहित व्यक्ति हमेशा दुष्टता और तबाही ही लाते हैं।
यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि गांधी द्वारा गठित कांग्रेस पार्टी ने भी कभी बापू के विचारों को अपनी राजनीति में कार्यान्वित करने की कोशिश नहीं की। गांधी की छवि का अपने निहित स्वार्र्थों के लिए इस्तेमाल कर सत्ता पर कब्जा जमाए ज्यादातर कांग्रेस नेताओं ने उनकी सेवा भावना, उनके दर्शन और उनके विचारों को निरर्थक और अनावश्यक पाया। अगर गांधी लंबे समय तक जीवित रहते, तो राष्ट्रीय गतिविधियों में उन्हें उसी तरह दरकिनार कर दिया गया होता, जैसे देश विभाजन व सत्ता बदल मुद्दे् पर नेहरू ने गांधी को हाशिये पर धकेल दिया था। बापू की शहादत का इस्तेमाल कांग्रेस द्वारा केवल अपने विरोधी पार्टियों, विशेषकर भाजपा के खिलाफ छींटाकशी के लिए ही किया जाता है। यदि 1948 में गांधी की हत्या न हुई होती, तो आजाद भारत में कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ वह सत्याग्रह पर सत्याग्रह करते दिखते। पाकिस्तान सरकार भले ही सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान को ज्यादातर समय तक जेल में कैद रखने में सफल हो गई थी, लेकिन महात्मा गांधी का इस तरह दमन संभव नहीं था।
बापू के पत्थरों की मूर्तियां सड़कों के किनारे स्थापित कर, साल में एक या दो बार उन्हें प्रतीकात्मक श्रद्धांजलि देकर और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भाषण में गांधी की सूक्तियों को शामिल कर कांग्रेस पूरी दुनिया के सामने यह आडंबर रचती हैं कि वह एक आदर्शवादी पार्टी है। परंतु आज यह आडंबर बाहर किसी को क्या प्रभावित करेगा, जब देश में ही आए दिन इसका परदाफाश होता है। मसलन, किसी जमाने में हमारी फिल्मों में गांधी टोपी व खादी का कुरता पहने हर किरदार एक ईमानदार व कर्मठ नागरिक का प्रतीक होता था। परंतु आज वही गांधी टोपी व सफेद खादी का कुरता-पाजामा, ‘भेड़ की खाल में भेड़िये’ नुमा राजनेता का पर्यायवाची बन गया है।
हमारे लिए गर्व की बात है कि दुनिया भर के लगभग सभी बेहतरीन, आदर्शवादी, सम्मानयोग्य राजनेता, दार्शनिक विचारक इत्यादि महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते हैं-इनमें मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मंडेला, दलाई लामा, आंग सान सू की, वैकलैव हैवल इत्यादि, सब गांधी के अनुयायियों की कतार में खड़े होकर गर्व महसूस करते हैं। परंतु भारत में बहुत कम लोग गांधी के विचारों को जीवन की कसौटी बनाने को तैयार हैं, भले ही वे शाब्दिक रूप से गांधी की तारीफों के पुल बांधने में कोई संकोच नहीं करते। भारत का युवा वर्ग तो आज राहुल गांधी और महात्मा गांधी के बीच फर्क करने की भी क्षमता नहीं रखता। बापू को सनकी व आधुनिक भारत के लिए अव्यावहारिक मानकर उनके विचारों के प्रति निरादर भावना रखना बहुत फैशनेबल माना जाता है।
हममें से जो भी व्यक्ति गांधी के प्रति सच्ची श्रद्धा रखते हैं, उनके लिए यह आवश्यक है कि वे गांधी के इन सिद्धांतों को अपने जीवन में आत्मसात करें। वे गांधी के दिए मूल मंत्र सत्य व अहिंसा का अपने हर काम का मूल्यांकन करने के लिए पारस पत्थर की तरह इस्तेमाल करें। वे अपनी करनी और कथनी के बीच की दूरी को प्रतिदिन मापें व यथासंभव कम करने की कोशिश करें। वे राजनीति व सामाजिक कार्य को स्वार्थ सिद्ध करने का पेशा मात्र न मानकर एक पवित्र मिशन की भावना से सामाजिक कार्यों से जुड़ें। वे देश के सामने खड़ी चुनौतियों के समाधानों की खोज विवाद से उपर उठकर करने की आदत डालें। वे देश में गांव-शहर, अमीर-गरीब के बीच बढ़ते फासले व भारतीय भाषाओं की अवहेलना की नींव पर अंगरेजियत का दिनों-दिन बढ़ता बोलबाला कम करने के सक्रिय उपाय ढूंढे। वे सरकारी तंत्र में नागरिकों के प्रति जवाबदेही के ठोस प्रावधानों का इंतजाम बनाने की राजनीति को सक्षम करें।
महात्मा गांधी सदैव याद दिलाते थे कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। हममे से जो लोग गांधी को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं, उनके लिए यह जरूरी है कि वे खुद से रोज ईमानदारी से पूछें कि क्या हमारा रोजमर्रा का जीवन भी गांधी के रास्ते पर चलने के लिए औरों को प्रेरित करने की क्षमता रखता है, या कोई वैसा ही सार्थक संदेश देता है? --------------------------
उनकी पीड़ा समझिए |
|
|
|
Story Update : Wednesday, September 22, 2010 1:31 AM |
यह एक बड़ी विडंबना है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम समेत कई सकारात्मक चीजों से जुड़े आजादी शब्द का कश्मीरियों द्वारा उच्चारण करने पर हमारे राजनीतिक हलकों और प्रबुद्धजनों में भय की लहर दौड़ जाती है। लोकमान्य तिलक ने आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है का नारा दिया था, जिससे एक कदम आगे बढ़कर गांधी ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ ‘स्वराज’ यानी स्वशासन को परिभाषित किया। हममें से ज्यादातर लोग यह मानने लगे हैं कि कश्मीरी केवल पाकिस्तानी एजेंटों की आज्ञा से आजादी की मांग करते हुए गलियों में निकलते हैं। इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान ने कश्मीर के राजनीतिक माहौल में जहर घोल दिया है। लेकिन हमें समझना चाहिए कि यह हमारे अपने राजनेताओं का गैर-जिम्मेदार रवैया ही है, जो कश्मीर में आजादी की मांग को पाकिस्तानी एजेंडा बनने में मदद करता है।
मामला केवल कश्मीर का नहीं है। देश के बाकी हिस्सों में भी लोग सरकारी व्यवस्था की गैर जवाबदेही पर क्षुब्ध हैं, जिसने लोकतंत्र को भ्रष्टाचार और अपराध का बंधक बना दिया है। जिन राज्यों में अलगाववादी गतिविधियां नहीं हैं, वहां भी हम रोज देखते हैं कि विभिन्न मुद्दों को लेकर लोगों का गुस्सा फूट पड़ता है। बुनियादी सुविधाओं का अभाव, लोगों की जमीन का जबर्दस्ती अधिग्रहण, मानवाधिकार उल्लंघन, जंगल एवं जल संसाधनों का विनाश, अपराधिक गिरोहों को पुलिस एवं राजनेताओं का संरक्षण, चुनावी धांधली और पुलिस हिरासत में मौत-लोगों की शिकायतें असंख्य हैं। पुलिस की गलत नीतियों के कारण, जो अकसर चुपचाप विरोध करने वालों को भी पीट देती है, हम सामान्य विवादों को भी हिंसक रूप लेते हुए देखते हैं।
जब आक्रोश मेरठ या मुंबई में भड़कता है, तब इसे सत्तारूढ़ पार्टी और नौकरशाही से मोहभंग के रूप में देखा जाता है। लेकिन यही जब कश्मीर में होता है, तो उसे राष्ट्र-विरोधी गतिविधि के रूप में देखा जाता है। हालांकि लोगों का तर्क यह है कि देश के दूसरे हिस्से के लोग सरकार के खिलाफ विरोध करते हुए आजादी की मांग नहीं करते, न ही भारत से अलग होने की बात कहते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि देश के दूसरे हिस्सों में सरकार का विरोध करनेवालों का घातक हथियारों से लैस सुरक्षा बलों द्वारा दमन नहीं किया जाता, जैसा कि अकसर कश्मीर में होता है। जहां कहीं भी भारतीय लोकतंत्र का चेहरा सुरक्षा बलों की बंदूक होगा, वहां लोगों को आजादी के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
कश्मीर में आजादी का अभाव हर सड़क, मोहल्ला, शहर और घाटी के गांवों में देखा जा सकता है। घाटी में आने वाले का सामना, चाहे वह सड़क मार्ग से आए या वायु मार्ग से, सेना और सुरक्षा बलों की मौजूदगी से होगा। वहां थोड़ी-थोड़ी दूर पर पुलिस चौकी और बंकर बने हैं। काम पर जानेवाले लोगों, स्कूल या कॉलेज जाने वाले बच्चों को जब-तब जांच के लिए रोका जाता है। मनमानी गिरफ्तारी, हिरासत में मौत और गायब होने की घटनाएं वहां रोजमर्रा की बातें हैं।
सेना या सुरक्षा बल के जवान वहां अपनी मरजी से नहीं हैं। उनकी संख्या और मौजूदगी तभी दमनकारी होती है, जब राजनीतिक नेतृत्व निर्दयी और अयोग्य होता है तथा अपनी गलतियों के खिलाफ लोगों के गुस्से को सुरक्षा बलों के प्रयोग से खत्म करने का प्रयास करता है। घाटी में दशकों से सुरक्षा बलों की दमनकारी मौजूदगी और आतंकवादियों की बंदूकों के साये में रह रहे लोग केवल आजादी ही मांग सकते हैं। चाहते हुए भी वे आतंकवादियों के खिलाफ विरोध करने तो जा नहीं सकते। हां, वे भारतीय सुरक्षा बलों की बंदूकों के स्थायी भय से आजादी मांग सकते हैं और उन्हें मांगनी भी चाहिए, खासकर तब, जब वे निर्दोषों को मारते हैं। सुरक्षा बलों की बंदूकें वहां हमारे नागरिकों को सुरक्षा का एहसास दिलाने के लिए होनी चाहिए, न कि भ्रष्ट और धूर्त राजनेताओं की मदद के लिए, जो अपने खराब शासन का विरोध करनेवालों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करते हैं। अलगाववादी आतंकियों को पराजित कर कश्मीरियों ने पाक-प्रायोजित आतंकवाद के प्रति अपनी नापसंदगी दिखा दी है। पिछले दो चुनावों में भारी संख्या में हिस्सा लेकर उन्होंने लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था भी जताई है। पर लोकतंत्र में भरोसे को चुनावी धांधली और भ्रष्ट प्रशासन द्वारा कुचल दिया जाता है, तो हमें जनता के विरोध के अधिकार का सम्मान करना चाहिए।
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में अलगाववादी भावना में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई थी। उन्होंने न सिर्फ 2002 के चुनाव को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से संपन्न कराया था, बल्कि समूचे कश्मीर घाटी को भरोसा दिलाया था किकश्मीर का निष्पक्ष समाधान ‘इंसानियत के दायरे’ में होगा। कश्मीर में किसी ने भी इसका मतलब संविधान के खिलाफ जाने से नहीं लगाया। उन्होंने इसे वाजपेयी की स्वीकारोक्ति के रूप में लिया कि वह पिछली सरकारों की गलतियां नहीं दोहराएंगे।
डॉ. मनमोहन सिंह ने भी हिंसा में विश्वास नहीं रखने वाले लोगों से ‘सांविधानिक दायरे’ में संवाद की पेशकश दोहराई है। क्या प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि उमर अब्दुल्ला नीत गठबंधन सरकार संविधान के दायरे में रहकर काम कर रही है? कश्मीरी इसलिए गुस्से में हैं कि राज्य सरकार ने केंद्र की शह पर उनके सांविधानिक अधिकारों का हनन किया है। लोगों से भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा की अपेक्षा करने से पहले केंद्र को अपने नागरिकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। |
|
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें