मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

छठी पोस्ट-


भ्रष्टों का समाज
गिरीश मिश्र
Story Update : Tuesday, December 28, 2010    11:18 PM
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पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली में एक पांचमंजिला भवन धराशायी हो गया था। उसी हादसे के आसपास राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला और 2 जी स्पेक्ट्रम बंटवारे में घोटाले के मामले सामने आए। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सभी घोटालों से मीडिया और आम लोगों का ध्यान भी धीरे-धीरे हटने लगा है। सचाई यह है कि आज बड़ा से बड़ा अपराध भी लोगों की स्मृति से कुछ ही दिनों में उतर जाता है। अगर हम इतिहास में झांकें, तो पाएंगे कि अपराध मानव समाज में युगों से है। वेदों में हमें अनार्यों द्वारा आर्यों की संपत्ति चुराने का जिक्र मिलता है। मगर वह चोरी अंधेरे में होती थी। इसलिए हम सूर्य, चंद्रमा, ऊषाकाल, प्रकाश आदि की अभ्यर्थना पाते हैं। धर-धान्य, मवेशी आदि की चोरी प्राचीन काल से होती आई है। बदमाश, जेबकतरे, डाकू आदि नए नहीं हैं। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि शिकार बनाने और शिकार बनने वाले, दोनों की पहचान स्पष्ट होती है। मसलन, जेबकतरा जब आपकी जेब काटता है, तो उसे अपने शिकार का पता होता है।

अपराध के स्वरूप और उसके विभिन्न आयामों में परिवर्तन 19वीं सदी में देखने में आया, जब आधुनिक पूंजीवाद का उदय हुआ। इनकी चर्चा हमें चार्ल्स डिकेंस, बाल्जाक, एमिल जोला आदि साहित्यकारों की कृतियों में मिलती है। मगर पहली बार इनका वैज्ञानिक विश्लेषण अमेरिकी समाजशास्त्री एडवर्ड अल्सवर्थ रौस ने पिछली सदी के प्रथम दशक में किया। द क्रिमिनलोयाड नाम से उनका मशहूर शोधपत्र द एटलांटिक मंथली के जनवरी 1907 अंक में प्रकाशित हुआ। उनके मुताबिक, जिन नए किस्म के अपराधियों का उदय हुआ है, उन्हें समाज सामान्यतया कर्मठ, बुद्धिमान और सफल मानता है और उन्हें सम्मान भी देता है। आम अपराधियों के विपरीत इनकी गिरफ्तारी को दबा दिया जाता है। ध्यान से देखें, तो वे परंपरागत अपराधियों से अधिक खतरनाक होते हैं। वे समाज और राजकोष को ही अधिक क्षति पहुंचाते हैं, जिसका असर लंबे समय तक महसूस किया जाता है।

ऐसा इसलिए नहीं होता कि समाज उनका चापलूस होता है। इसका मूल कारण है कि उनके अपराध नए हैं और पूंजीवाद के आधुनिक रूप के साथ आए हैं। इन अपराधों को अंजाम देने वालों के लक्ष्य उस तरह स्पष्ट नहीं होते, जिस तरह किसी बदमाश या जेबकतरे के होते हैं। इनके दुष्परिणाम भी तुरंत प्रकट नहीं होते। अगर कोई अभिजात व्यक्ति किसी को गाड़ी से कुचल दे, समय समाप्त होने के बाद शराब परोसने से मना करने वाली परिचारिका को गोली मार दे या अपनी पत्नी की हत्या कर दे, तो भारी हंगामा मचता है। लेकिन रिश्वतखोरी के कारण घटिया निर्माण सामग्रियां इस्तेमाल करने वाला या रिश्वत लेकर ठेका देने में पक्षपात करने वाला समाज और मीडिया की भर्त्सना का कभी-कभार ही शिकार होता है। आजादी के बाद बिहार में भूमि सुधार कानूनों की धज्जियां उड़ाकर राज्य को पिछड़ेपन की गर्त में धकेलने और करोड़ों लोगों को विपन्न जीवन बिताने के लिए मजबूर करने वालों की सामाजिक प्रताड़ना तक न हुई। उलटे वे अधिकाधिक संपन्न होकर सत्ता पर हावी हो गए। इसका मूल कारण यह है कि परंपरागत किस्म की नैतिकता हमारे ऊपर हावी है।

आधुनिक औद्योगिक पूंजीवाद काफी जटिल है। बाजार ने सारे कार्य-व्यापार को इतना जटिल बना दिया है कि सतह के नीचे क्या हो रहा है, यह जान पाना सबके बूते की बात नहीं है। नई वित्तीय व्यवस्था और विधिशास्त्र की जटिलताओं ने आपराधिक कृत्यों को काफी हद तक छिपाया है। बाजार में ऐसे विशेषज्ञ आ गए हैं, जो बताते हैं कि करों तथा अन्य चीजों की चोरी कैसे निरापद रूप से की जाए। चोरी के धन को कहां छिपाया जाए या धो-पोंछकर कैसे कानूनी कारोबार में लगाया जाए। ऐसी एक बड़ी प्रभावशाली जमात का जन्म हुआ है, जिसका काम नए प्रकार के अपराधों पर परदा डालना, सत्तारूढ़ लोगों को प्रभावित करना तथा अपराध में लिप्त लोगों की छवि को मनोहारी बनाना है। व्यवसायियों, नौकरशाहों और राजनेताओं के बीच एक गठबंधन बन गया है। आजादी के बाद ही नए किस्म के दलाल सत्ता के गलियारों में दिखते आ रहे हैं।

परंपरागत अपराधियों के विपरीत नए किस्म के अपराधी सामाजिक रूप से सक्रिय होते हैं। कई तो धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक अवसरों तथा राहत कार्यों के दौरान तिजोरी खोल खुद को लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ये राजनेताओं के चुनाव अभियान में भी भरपूर मदद करते हैं। नए प्रकार के ये अपराधी अपने संसाधनों और प्रभाव के बूते ऐसा सामाजिक एवं राजनीतिक सम्मान और दबदबा हासिल कर लेते हैं, जो किसी आम चोर-डाकू को कभी मयस्सर नहीं हो सकता। एक डाकू या हत्यारा किसी व्यक्ति से उसकी कमाई या जिंदगी छीन लेता है, मगर समाज के आदर्शों को स्थायी रूप से कोई क्षति नहीं पहुंचाता, जबकि वित्तीय हेराफेरी करने वाले का अपराध पूरा समाज भुगतता है।

नए किस्म के अपराधी आम तौर पर संवेदनहीन होते हैं, क्योंकि उनको पता नहीं कि शिकार कौन और कब बनेगा। सौ वर्ष के लिए बना पुल अगर घटिया सामान के कारण बीस वर्षों में धराशायी हो जाता है, तो बनाने वाले को मालूम नहीं होता कि इससे कितनी जानें जाएंगी। इसी प्रकार सरकारी खजाना लूटनेवाले को यह भान नहीं होता कि पैसे के अभाव में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलने से किसे हानि होगी। इसके बावजूद नए किस्म के अपराधियों के अपराध को समाज और सरकारें गंभीरता से नहीं लेतीं, तो इससे बड़ी विडंबना और कुछ नहीं है।
(अमर उजाला से साभार)

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